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ऑपरेशन सफेद सागर
ऑपरेशन सफेद सागर

परिचय,
भारतीय वायु सेना हेलीकॉप्टर द्वारा हवाई सहायता प्रदान करने के लिए पहली बार ११ मई १९९९ को पहुंची। इसके पश्चात २५ मई को सी सी एस द्वारा भा वा से को एल ओ सी पार किए बिना घुसपैठियों पर आक्रमण करने के लिए आगे बढ़ने का आदेद्गा दिया गया। भा वा से पर केवल अटैक हेलीकॉप्टरों द्वारा ऑपरेट (संक्रिया) करने का पर्याप्त बाह्‌य दबाव होने के बावजूद वायुसेनाध्यक्ष सरकार को यह समझाने में सफल रहे कि हेलीकॉप्टरों के लिए एक उपयुक्त परिवेद्गा तैयार करने के लिए युद्धक कार्यवाही (फाइटर एक्द्गान) की आवश्यकता थी।ओपरेशन सफेद सागर जिसमें कारगिल क्षेत्र में हवाई ओपरेशन का आह्‌वान किया गया था, वास्तव में सैन्य विमानन के इतिहास में मील का पत्थर था, चूंकि ऐसे पर्यावरण में पहली बार हवाई शक्ति नियोजित की गई थी।

पर्यावरण का प्रभाव

एयरक्राफ्ट और हथियार (कार्य) निषपादन क्षमता में तेजी से कमी आने का पूरी तरह से अंदाजा लगाना आम आदमी के लिए मुद्गिकल है। कारगिल जैसे पर्यावरण में ऑपरेट करने के लिए अभी तक कोई ऐसा एयरक्राफ्ट डिजाइन नहीं किया गया था। हाई एल्टीट्‌यूट पर एयरक्राफ्ट की उपलब्ध (कार्य) निषपादन क्षमता को बचाकर रखना (रिजर्व रखना) एक क्रूसियल फैक्टर था जिसमें मिग और मिराज बेडे़ के पक्ष में मजबूत पाइंट थे। इनकी तुलना में फेयर चाइल्ड ए-१०, जिसके बारे में विस्तार रूप से चर्चा थी कि यह एक आदर्द्गा प्लेटफार्म है मिसफिट हो गया होता। व्यापक रूप से (और गलत रूप से) यह कहा गया कि मेक-२ के प्रयोग से परिणाम नहीं आएंगे। तथापि सभी फिक्सड विंग एयरक्राफ्टों की आकाद्गा से जमीनी आक्रमण की स्पीड लगभग एक समान अटैक स्पीड (७५० से ९५० किमी./घंण्टा) थी।
वायुमंडल के अत्यंत भिन्न अट्रिब्यूट होने की वजह से हथियार (कार्य) निषपादन समुद्र तल विनिर्देद्गानों के अनुसार नहीं था। वायुमंडल के तापमान और घनत्व में अंतर, परिवर्तित ड्रैग इन्डिक्स और बहुत से अन्य कारणों की (जिसका अनुमान, इस प्रकार के एल्टीट्‌यूड के लिए किसी भी निर्माता ने कभी नहीं लगाया था) वजह से हथियार अपने लक्ष्य से दूर जाते थे, इन्हीं कारणों की वजह से सामान्य रूप से विद्गवसनीय कंप्यूटरीकृत हथियार लक्ष्य डिवाइसों ने भी गलत परिणाम दिए।
मैदानी क्षेत्रों में, टार्गेट से २५ गज दूर गिरने वाला १००० पाउंड का बम पूरी तरह से अद्गाक्त हुआ होता यदि इसे सीध में नहीं लाया गया होता। तथापि पर्वतीय क्षेत्रों में, लहरदार भू-भाग और मास्किंग प्रभाव की वजह से कुछ गज की गलती मिस प्रोवर्वियल मील के समान ठीक होती। इसके अतिरिक्त उन्नयन में परिवर्तन के कारण ''विफलता'' (मिस) व्यापक रूप से लाइनर विमा में आवर्धित होती जिससे पुनः वेपन/डिलीवरी की अशुद्धता में वृद्धि होती है। इससे हथियार डिलीवरी में पुनः स्पष्ट रूप से अशुद्धताएं आती। अतः ऐसी दशाओं में जहां उपर्युक्त उल्लिखित अर्ट्रिब्यूट में पूरी तरह से हरास (कमी) हो गयी हो, वहां सटीक परिशुद्धता की आवश्यकता थी।

पहले कुछ दिन

दुःद्गमन की कार्रवाई में एक फाइटर और एक एम आई-१७ चापर की हानि ने रणनीतियों में बदलाव की आवश्यकता को इंगित किया जिसके फलस्वरूप सद्गास्त्र हेलीकॉप्टरों की वापसी और स्टिंगर एस ए एम एन्वलप से बाहर माडिफाइड प्रोफाइलों में फाइटरों का नियोजन हुआ। स्वयं द्वारा, रणनीतियों में परिवर्तन करना कुछ भी असामान्य नहीं है और यह नमनीयता और ढलनद्गाीलता (।कनचजंइपसपजल) का अंतर्निहित भाग है, वास्तव में जब पुनः निर्धारण करने की स्पष्ट रूप से आवश्यकता हो तब परिसंपतियों को बलिदान करने के लिए डटे रहने के लिए दृढ़ प्रवृत्तियां अपनाना, अधिक गंभीर खामियाजा होता। शायद इसी कारण की वजह से, नाटो ने यूनान ग्रीस में १०० अपाचे अटैक हेलिकॉप्टरों की तैनाती करने के पद्गचात शूटिंग (युद्ध) समाप्त होने तक उन्हें कोसोवो में लाने के लिए पुर्नविचार किया था चूंकि उन्होंने समझा कि इनके लिए पर्यावरण अनुकूल नहीं था। दुर्भाग्यवद्गा एम आई-२५/३५ अटैक हेलीकॉप्टर इस भू-भाग में ऑपरेट करने योग्य नहीं थे।
कई तथ्यों में एक महत्वपूर्ण तथ्य जो स्पष्ट रूप से सामने आया है वह है पायलट द्वारा टार्गेट का पता लगाना। तेजी से घूमते हुए एयरक्राफ्ट द्वारा कारगिल क्षेत्र के पूर्णतः अपरिचित परिवेद्गा में जमीन पर लक्ष्य की पहचान करना कठिन हो गया था। जिसके परिणामस्वरूप अधिक ऊंचाई की कुछ आरंभिक उड़ाने उतनी प्रभावशाली नहीं रही जितनी होनी चाहिए थी। तथापि एक बार संद्गाोधित और माडिफाइड, प्रोफाइलों, प्रणाली प्रयोग की रणनीतियों और पद्धतियों को पूर्ण रूप से दुरूस्त किया गया होता तो हवाई आक्रमणों की परिशुद्धता में आद्गचर्यजनक रूप से सुधार आता। लक्ष्य चिन्हित हो जाने पर सफलता में निरपवाद रूप से अति उच्च दर की वृद्धि होती।
हवाई टोह और युद्ध की क्षति का मूल्यांकन : हवाई युद्ध का निर्णायक पहलू यह तस्वीर सामान्यतः
सामान्यतः हवाई हमलों पर बल देने से संबद्ध होती है जिसमें हैलमेट पहने हुए पायलट अपने एयरक्राफ्ट को भारी एंटी एयरक्राफ्ट फायर के बीच से उड़ान भरते हुए यात्रु फाइटर ग्रुप से गुजरते हुए अमानवीय विषामताओं के बावजूद अपने आक्रमण को फोकस (प्रैस होम) करता है। वास्तव में, द्वितीय विद्गव युद्ध तक यह घटित हुआ-जर्मनी में यू एस की ८वीं एयरफोर्स ने दिन में और आर ए एफ द्वारा रात्रि में उड़ानभर अपने जीवन और मद्गाीनों को भयानक रूप से दाव पर लगाकर जर्मनी पर १००० बम गिराए गए।
तथापि, उस समय भी गुमनाम पर्दे के पीछे के एक्सपर्ट जो अपना समस्त जीवन टोह (रिसी) फोटोग्राफ लेने परिश्रम से लिए गए ब्योरों के पश्चात नोटिंग ब्योरों के लिए झोंक देते हैं और टार्गेट सूचना उपलब्ध कराते हैं जो अंततः बमबारी मिद्गान का आधार बनती है। टार्गेट को निषप्रभावी करने के तीन मुखय चरण हैं। प्रत्येक हवाई आक्रमण में बिना सोचे-समझे कोई तत्काल प्रतिक्रया नहीं होती है, बल्कि इसमें घटनाओं की सावधानीपूर्वक नियोजित श्रृंखला होती है जिसमें कई क्षेत्रों के विशेषज्ञ शमिल होते हैं, का अंतिम परिणाम होता है। स्पष्ट रूप से कहे तो हवाई हमले में निम्नलिखित घटक होंगे :-
(क)टोही मिद्गान।
(ख) हवाई आक्रमण मिद्गान
(ग) युद्ध की क्षति मूल्यांकन (बी डी ए) मिद्गान।
(घ) यदि बी डी ए के परिणाम द्वारा अथवा टोह द्वारा ऐसा आदेद्गा हो, तो हवाई आक्रमणें की पुनरावृत्ति। .

हवाई आक्रमणें के बढ़ते प्रभाव

इन हमलों के परिणामस्वरूप विभिन्न क्षेत्रों में, शुगमन की सेना और उपस्कर की बेहद क्षति हुई। यह अनुमान लगाया जाता है कि हवाई हमलों से, शुगमन की हताहत सूची में बड़ी संखया में वृद्धि हुई हालांकि, शुगमन के रेडियों के इंटरसेप्टरों से पता चला कि जमीनी प्रभावों में सबसे प्रभावशाली प्रभाव खाद्‌य-सामग्री, जल, दवाइयों और हथियारों की भारी कमी थी। इंटरसेप्टर में हवाई हमलों से हुई हानि और हताहतों की निकासी का भी जिक्र था। यह ग्राउंड पर, भारतीय वायु सेना प्रभावशाली हवाई आक्रमणों का वास्तविक प्रदर्द्गान था। सटीक आक्रमणें के प्रभाव का सर्वोत्तम सार भारती सेना के एक मुखयालय से प्राप्त संदेद्गा में मिलता है। ''आप दिलारों ने बेहतरीन कार्य को अंजाम दिया है। आपके मिराज पायलटों ने परिशुद्ध लेजर निदेद्गिात बमों से मिराग टाइगर हिल क्षेत्र में यात्रु के बटालियन मुखयालय पर आक्रमण किया और आद्गचर्यजनक सफलता हासिल की। उस आक्रमण में पांच पाकिस्तानी अफसर मारे गए और उनका कमान और नियंत्रण तहस-नहस हो गया-जिसके परिणामस्वरूप हमारे सैन्य दलों ने संपूर्ण टाइगर हिल क्षेत्र पर अपना कब्जा कर लिया। शुगमन वहां से भाग खड़ा हुआ। वे अन्य क्षेत्रों से भी पलायन कर रहे थे और इस तरह संघर्षा की शीघ्र ही समाप्ति हो गयी।
आक्रमण से पूर्व लक्ष्य एक और दो (टाइगर हिल)

भारतीय वायु सेना के हवाई आक्रमण : इसके परिणाम

भारतीय वायु सेना द्वारा दुःद्गमन के आपूर्ति कैम्पों और अन्य टार्गेटों पर किए गए हवाई आक्रमणों से बेहतर परिणाम सामने आए। उल्लेखनीय तथ्य यह है कि ग्राउंड पर कोई भी एक ऐसा ओपरेशन नहीं था जो हवाई हमले के बिना संभव हुआ। इनमें से प्रत्येक आपरेशन १५ कोर और जम्मू एवं कद्गमीर के ए ओ सी के समन्वित नियोजन का परिणाम था। तथापि, इन ऑपरेद्गानों से जो बात उभरकर सामने आई वह यह थी कि आरंभ से ही सेना वायु सेना के संयुक्त नियोजन और परामर्द्गा की आवश्यकता थी जहां वायु सेना उन टार्गेटों के लिए सुझाव देती जिन्हें सेना की ग्राउंड ओपरेशन योजना में सबसे पहले शामिल किया जा सकता था। यह उस मामले से कहीं अधिक कारगर होता जहां सेना ने पहले अकेले बनायी गयी अपनी निजी योजना के अनुसार कार्रवाई आरंभ की थी और जब उन्होंने इसकी आवश्यकता समझी हवाई सहायता के लिए बुलाया।
सर्वप्रथम, शुगमन की आपूर्तियों को बाधित करने वाले क्षेत्रों में, पिछले कुछ सप्ताह से शुगमन की संभारिकी मद्गाीनों पर लगातार जारी सफलतापूर्वक हमलों से बहुत से क्षेत्रों में शुगमन को वहां बनाए रखने की क्षमता में गंभीर कमी आई। द्रास सेक्टर में पाइंट सं. ४३८८ पर किए गए श्रृंखलावद्ध हमले इस बात के एक उत्कृषट उदाहरण थे कि समय से की गई टोह और प्राणघातक हमले से इसका पता चला कि कैसे, शुगमन विकल्प आपूर्ति मार्गों पर द्गिाफ्ट हुआ और जिन पर पुनः कारगर हमले किए गए। शुगमन के रेडियो इंटर सेप्टरों की जांच से पता चला कि इसमें भा वा से शुगमन के आपूर्ति (सप्लाई) मार्गों को बाधित करने में सफल रही। बैटल फिल्ड एयर स्ट्राइक्स (बी ए एस) टार्गेटों के विपरीत इंटर डिक्द्गान टार्गेटों को पहले लेने की आवश्यकता स्पष्ट रूप से सामने आई और यह भी कि हवाई शक्ति को न केवल कम महत्व के टार्गेटों जैसे मद्गाीन गन, चौकियों, ट्रेंचेज जैसे लक्ष्यों पर ही समय लगाना (फोकस करना) था अपितु बड़े परिणामी लक्ष्यों (जैसे मुंथों ढालों में आपूर्ति कैंप और टाइगर हिल की चोटी पर शुगमन की बटालियन के मुखयालय) को भी नेद्गत-नाबूद करना था। डेक लेवल पर चीखें मारने (स्क्रीमिंग करने), एक्सटेंडिंड अर्टिलियरी के पीस के रूप में कार्य करने वाले फाइटरों के दिन लद चुके हैं। आज के युद्ध-क्षेत्र का हवाई रक्षा परिवेद्गा ऐसी वायुद्गाक्ति के नियोजन की अब अनुमति नहीं देता। इस महत्वपूर्ण तथ्य को सैनिक और सिविलियन दोंनों को ही समान रूप से समझने की आवश्यकता है।
इस ओपरेशन में हवाई शक्ति का दूसरा प्रमुख प्रभाव हताहतों के संबंध में था। सामान्यतः शुगमन जो बेहतर किलेबंदी की स्थिति में रक्षित हो, (इस मामले में पाकिस्तान) तो उसके हताहत सैनिकों की संखया आक्रमणकारी फोर्स की तुलना में ३ से ६ गुणा कम होती है। तथापि, इस ओपरेशन में स्थिति विपरीत देखने में आई, शुगमन के हताहत सैनिकों की संखया हमारे हताहत सैनिकों से कहीं अधिक थी। एक महत्वपूर्ण तथ्य जिसकी अनदेखी नहीं करनी चाहिए, युद्ध के दोनों पक्षों में, यह पाकिस्तानी सेना थी जिसने हवाई हमलों को झेला इन हमलों ने उसके हताहतों की संखया में बड़ी मात्रा में वृद्धि की। यह समझा जाता है कि हवाई शक्ति के प्रयोग के बिना, हमारे निजी हताहत सैनिकों की संखया पहुंच सकती थी यदि चार अंकों से अधिक नहीं होती ?
उस हमले का तीसरा पहलु, अटैक चापर ओपरेशन था। एम आई-३५ जैसे भा वा से के समर्पित अटैक् चापर उस ऊंचाई पर ऑपरेट करने में अक्षम थे जिससे इस भूमिका के लिए सद्गास्त्र और माडिफाइड एम आई-१७ प्रयोग में लाए गए। स्वयं मद्गाीन की क्षमता के साथ-साथ और ओपरेशन क्षेत्र सही हवाई रक्षा परिवेद्गा तैयार करना ऐसे निर्णायक कारक थे जो इस प्लेटफार्म पर नियोजन (हवाई शक्ति के नियोजन) का निर्धारण करते। प्रभावकारिता बनाम सुभेदता के परीक्षण की आवश्यकता थी। आपरेशन सफेदसागर के दौरान, खाली पड़े शुगमन द्वारा कब्जाए क्षेत्रों में मैन पोर्टेबल सैम, अटैक चापरों के कारगर रूप से नियोजन में बाधा थे। तथापि भा वा से के चीता फ्रंट लाइन ने भूमिका का निषपादन करने में, जैसे एयरबार्न फारवर्ड एयर कंट्रोलर (एफ ए सी) को प्लेटफार्म उपलब्ध कराने जैसे भूमिका का निषपादन करने में सहायक थे, इसमें एक फाइटर पायलट जो जमीनी लक्ष्यों पर आक्रमण करने के संबंध में फाइटरों को दिशा-निर्देद्गा देता है।

हवाई शक्ति का चौथा प्रमुख प्रभाव ग्राउंड पर किए गए आक्रमणों (की गई गोलावारी) से इसने व्यापक अंतर (ग्राउंड तहस-नहस कर दिया) ला दिया। इसका उदाहरण एक फील्ड आर्मी यूनिट के मुखयालय से प्राप्त संदेद्गा से बेहतर कोई उदाहरण नहीं हो सकता (जो ऊपर तिरछे शब्दों में दिया गया है) जिसमें कहा गया है कि ''टाइगर हिल पर किए गए लगातार घातक हवाई हमलों से हमारे सैन्यबलों ने पूरे टाइगर हिल क्षेत्र पर कब्जा कर लिया, शुगमन भाग खड़ा हुआ''।
पांचवा , कुशाग्र बुद्धि और कल्पना का सहारा लेकर नाइट आपरेशन संचालित किए गए। कई बार मिग-२१ जैसे एयरक्राफ्ट द्वारा स्टाप वॉच और जी पी एस रिसीवर का कम प्रयोग करने पर भी बेहतर परिणाम हासिल किए गए। इन आपरेद्गानों ने शुगमन की साहस जुटाने की क्षमता और शारीरिक शक्ति और युद्ध करने की इच्छा पर बुरा प्रभाव डाला।
छठवां, एयर डिफेंस एस्कोर्ट और युद्ध क्षेत्र में दिन और रात गद्गत लगाने में किए गए प्रयासों से शुगमन के अन्दर भय व्याप्त हो गया जिससे हवाई शक्ति की वरिषठता सुनिद्गिचत हुई। कई बार पाकिस्तानी टार्गेटों पर अटैक कर रहे हमारे स्ट्राइक फार्मेद्गानों से १५ किमी (एल ओ सी पार उनकी अपनी साइड में) दूर पाकिस्तानी वायु सेना के एफ-१६ कुछ समय के लिए घूमते नजर आए, जिन्हें स्ट्राइक लेवल से ऊपर बचावकारी पैटर्न में उड़ान भर रहे हमारे निजी एयर डिफेंस फाइटरों ने उन्हें दूर ही रखा।
सातवां पहलू, उच्च कोटि की परिकल्पना, लचीलापन और भारतीय वायु सेना और थलसेना के बीच समन्वय है जो आपरेशन के प्रत्येक चरण में देखने को मिला।
अंतिम विश्लेषण , में प्रभावशाली ढंग से किए गए हवाई हमलों ने निर्विवाद रूप से हताहतों की संखया कम करने के साथ-साथ हमारी थल सेना ने जिस समय-सीमा के अंदर ग्राउंड पर अपना परचम लहराया उसे भी कम किया। इस संदर्भ में हवाई शक्ति की मूलभूत कार्यप्रणाली की पुनरावृत्ति की गई।
१९४७-४८ के दौरान इन क्षेत्रों में भा वा से के आपरेशन जब भारतीय वायु सेना के जाबाजों ने घुसपैठियों पर भारी बमबारी और रॉकेट हमले किए थे और डकोटा द्वारा बड़े पैराड्राप सैन्यदल और आपूर्ति ले जायी गई, की तुलना में अधिक बड़े पैमाने पर किया गया। तब से लेकर आजतक राषट्र ने जब भी पुकारा भारतीय वायु सेना ने राषट्रीय लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए थलसेना के साथ कंधे से कंधा मिलाकर अपने कार्यों को अंजाम दिया।

निष्कर्षा

आपरेशन के शुरूआती समय से ही यह भा वा से के प्रबुद्ध वर्ग की गहन चर्चा का विषाय रहा है जिसका उद्‌देश्य आपरेशन सफेदसागर से सीख लेना था। यह सतत रूप से जारी प्रक्रिया होने के कारण, इस आपरेशन से प्राप्त किए गए व्यापक अनुभव आने वाले समय में उपयोगी होंगे। यह सीख विद्गव की सभी वायुसेनाओं पर लागू होगी चूंकि सैन्य विमानन के इतिहास में पहली बार किसी ऐसे हवाई आपरेशन को अंजाम दिया गया। स्थिति से निपटने के लिए रातों-रात आपरेटिंग प्रतिमान तैयार करने पड़े थे।
यह पहली बार था जब भा वा से ने सीमित युद्ध लड़ा, अब से समझा जाता है कि आगे ऐसी घटना की संभावना नहीं है चूंकि हवाई शक्ति और सैन्य दल में वृद्धि युद्ध की संभावना का पर्यायवाची समझा जाता है। हवाई शक्ति के भय प्रकटकर निवारण करने के प्रभाव में इस तथ्य से वृद्धि हुई है कि यहां तक कि हल्के दर्जें की संघर्षा स्थिति में भी निर्णायक हवाई कार्रवाई की पूरी संभावना होती है।
इसलिए आपरेशन सफेदसागर सैन्य विमानन के इतिहास में एक मोड़ बिन्दु था और एक ऐसा आपरेशन था जिसकी आगे के वर्गो में निःसंदेह रूप से चर्चा होगी और इसका सूक्ष्म द्रश्टि से विश्लेषण किया जाएगा।

 

1971 के ऑपरेशन
1971 के ऑपरेशन
अत्यधिक विस्तार कर चुकी वायु सेना के व्यावसायिक स्तर, क्षमता और लचीलेपन की कठिन परीक्षा का समय शीघ्र सामने आने वाला था। 1970 के शुरू से ही उपमहाद्वीप की राजनीतिक स्थिति बिगड़ने लगी और भारतीय वायु सेना को एक और संभावित सशस्त्र संघर्ष के लिए सतर्क किया गया। नवंबर में कुछ सप्ताह तक भारत और पाकिस्तान दोनों की सरकारों ने पश्चिमी सीमा से लगे क्षेत्रों में राष्ट्रीय हवाई क्षेत्र के अतिक्रमण पर विरोध जताया लेकिन दोनों देशों की वायु सेनाओं के बीच हवाई संघर्ष सही मायने में 22 नवंबर को शुरू हुआ जो भारत और पाकिस्तान के बीच 12दिनों तक चलने वाले पूर्ण-स्तरीय युद्ध का पहला कदम था। 1449 बजे चार पाकिस्तानी सेबर वायुयानों ने चौगाचा मोड़ क्षेत्र में भारतीय और मुक्ति बाहिनी मोर्चे पर गोलाबारी की और 10 मिनट बाद तीसरे गोलाबारी हमले में लगे सेबर वायुयानों को नं. 22 स्क्वॉड्रन के चार नैट वायुयानों ने इंटरसेप्ट किया जिसकी एक टुकड़ी दमदम हवाई अड्‌डे, कलकत्ता से ऑपरेट कर रही थी। बाद की घमासान लड़ाई के दौरान तीन सेबर वायुयानों को मार गिराया गया और सभी नैट वायुयान सही-सलामत अपने बेस पर लौट आए। भारत-पाकिस्तान के एक नए हवाई युद्ध में पहली बढ़त 

हासिल कर ली गई थी। 3 दिसंबर को पूर्ण स्तरीय युद्ध आरंभ होने से पहले भारत और पाकिस्तान दोनों के हवाई क्षेत्रों के भीतर अगले 10 दिनों के दौरान अन्य लड़ाइयां होने वाली थीं। पाकिस्तानी वायु सेना द्वारा पहले भारतीय वायु सेना के श्रीनगर, अमृतसर और पठानकोट स्थित बेसों पर पूर्व-नियोजित हमला किया गया और बाद में अंबाला, आगरा, जोधपुर, उत्तरलई, अवंतीपुर, फरीदकोट, हलवाड़ा और सिरसा पर भी हमले किए गए। भारतीय वायु सेना के बेसों के अतिरिक्त पाकिस्तानी वायु सेना ने रेलवे स्टेशनों, भारतीय अस्त्र-शस्त्र केन्द्रों और अन्य लक्ष्यों पर भी हमले किए। जवाब में आगामी दो सप्ताह के दौरान भारतीय वायु सेना ने पश्चिमी क्षेत्र में जम्मू, कश्मीर, पंजाब और राजस्थान स्थित प्रमुख एवं अग्रवर्ती बेसों से कोई 4000 तथा पूर्वी क्षेत्र में 1978 और सॉर्टियां भरीं।

पूरे संघर्ष के दौरान जहां भारतीय रणनीति पश्चिमी और उत्तरी सीमाओं पर मूल रूप से रक्षात्मक भूमिका निभाते हुए पूर्वी क्षेत्र में भरपूर रफ्तार के साथ अभियान चलाने पर केन्द्रित थी, भारतीय वायु सेना ने 80 प्रतिशत से ऊपर की अत्यंत सराहनीय सेवायोज्यता हासिल की। पूरे मिशन का जोर इंटरडिक्शन पर था। पश्चिम में भारतीय वायु सेना का प्रथम कार्य दुश्मन के संचार को बाधित करना, ईंधन और आयुध भंडारों को नष्ट करना तथा जमीनी बलों को जमा होने से रोकना था ताकि जब भारतीय बल पूर्वी क्षेत्र में व्यस्त थे, भारत के विरुद्ध कोई प्रमुख हमला न किया जा सके। पूर्वी सीमा पर भारतीय बलों ने एक परिष्कृत अभियान शुरू किया जिसमें तेजी से और तीन दिशाओं से आगे बढ़ रही हथियारबंद पैदल सेना, वायुयानों और हेलिकॉप्टरों से किए जा रहे हमले, पोतों से की जा रही मिसाइलों की बमबारी और एक जलस्थलीय अवतरण शामिल थे, भारतीय वायु सेना का प्राथमिक कार्य जमीनी बलों को सीधे सहायता पहुंचाना था। पश्चिमी रेगिस्तान में एक शानदार हवाई कार्रवाई में जैसलमेर स्थित टुकड़ी ओ सी यू के चार हंटर वायुयानों ने लोंगेवाला स्थित एक पूरी हथियारबंद रेजिमेंट को खत्म कर दिया और इस तरह दुश्मन के हमले पर वहीं के वहीं विराम लग गया।

भारतीय वायु सेना के पास दिसंबर 1971 के संघर्ष के दौरान अपने प्रदर्शन से संतुष्ट होने का उचित कारण था। यद्यपि पाकिस्तानी वायु सेना ने प्रमुख अग्रवर्ती बेसों पर पूर्व-नियोजित हवाई हमलों के माध्यम से युद्ध की शुरूआत की थी, भारतीय वायु सेना ने शीघ्र बढ़त हासिल कर ली और इसके बाद दोनों सीमाओं पर हवाई प्रभुत्व स्थापित कर लिया। युद्ध में नुकसान तो होना ही था परंतु भारतीय वायु सेना ने अपने दुश्मन के मुकाबले कहीं ज्यादा सॉर्टियां भरीं जिनमें मुख्यतः इंटरडिक्शन मिशन सॉर्टियां अधिक थीं और इससे हुआ अधिकतर नुकसान गहन वायुयान रोधी गोलाबारी का परिणाम था। भारतीय वायु सेना ने हवाई युद्ध में निश्चित तौर पर अपनी श्रेष्ठता साबित की। पहला दौर एक बार फिर नैट वायुयानों के नाम रहा परंतु इसके बाद के साथी मिग-21 वायुयान शीघ्र ही व्यावसायिक पायलटों द्वारा उड़ाए जा रहे इस सुपरसोनिक लड़ाकू वायुयान की श्रेष्ठता प्रदर्शित करने वाले थे। मिग-21 एफएल वायुयानों से लैस छह स्क्वॉड्रनें भारतीय वायु सेना के युद्ध-क्रम का हिस्सा थीं और पूर्वी तथा पश्चिमी दोनों सेक्टरों में ऑपरेशनों में भाग ले रही थीं। बांग्लादेश में तूफानी हवाई हमले के दौरान तीन मिग-21 स्क्वॉड्रनें जवाबी हवाई कार्रवाई, एस्कॉर्ट और निकट सहयोग कार्यों में गुवाहाटी और तेजपुर से ऑपरेट कर रही थीं। छोटी रेंज में मिग-२१ की अत्यंत प्रभावशाली मारक क्षमता का सटीक हमलों में बेहतरीन प्रदर्शन देखने को मिला जब 500 किग्रा के बमों से तेजगांव और कुर्मीतोला स्थित पाकिस्तानी वायु सेना के हवाई बेसों पर हमले किए गए और खुद राजधानी ढाका स्थित महत्वपूर्ण कमान केन्द्रों पर 57 मि. मी. रॉकेटों से अचूक हमले किए गए।

मिग 21 को पश्चिमी क्षेत्र में हवाई रक्षा, एस्कॉर्ट और इंटरसेप्शन के प्रमुख कार्यों में तैनात किया गया। उत्तर में पठानकोट से लेकर दक्षिण-पश्चिम क्षेत्र में जामनगर तक सभी प्रमुख हवाई बेसों पर तैनात किए गए मिग-21 एफएल वायुयानों ने महत्वपूर्ण ठिकानों (वीपी) और महत्वूपर्ण क्षेत्रों (वी ए) के ऊपर सैकड़ों समाघाती हवाई गश्त सॉर्टियां भरीं, बमवर्षक और स्ट्राइक फाइटर वायुयानों के लिए एस्कॉर्ट मिशनों को अंजाम दिया और दुश्मन के खतरनाक घुसपैठियों को रोकने के लिए लगातार चक्कर लगाए। मिग-21 को अंततः दिसंबर 1971 की लड़ाई के दौरान उपमहाद्वीप के ऊपर हवाई संघर्ष में अपना असली प्रतिद्वंद्वी एफ-104 स्टारफाइटर मिला और घमासान लड़ाई के रूप में दर्ज चारों मुकाबलों में मिग-21 वायुयानों ने एफ-104 वायुयानों को पछाड़ते हुए उन्हें धूल चटाई। 12 दिसंबर 1971 को पहली हवाई जीत हासिल हुई जब नं. 47 स्क्वॉड्रन की मिग-21 एफएल ने कच्छ की खाड़ी के ऊपर पाकिस्तानी वायु सेना के एक एफ-104 को मार गिराया और इसके बाद शीघ्र ही 17 दिसंबर को लगातार तीन और जीत हासिल करते हुए एचएफ-24 मारुत को एस्कॉर्ट कर रहे नं. 29 स्क्वॉड्रन के मिग-21 एफएल ने इंटरसेप्ट कर रहे एफ-104 वायुयान को राजस्थान के रेगिस्तान में उत्तरलाई के निकट बंदूक-मिसाइल मुठभेड़ में मार गिराया, जबकि घुसपैठ मिशन में लगे तीसरे एफ-104 को नं. 29 स्क्वॉड्रन के एक और मिग-21 एफएल ने मार गिराया।

दिसंबर 1971 के युद्ध में भारतीय वायु सेना को भारत का सर्वोच्च शौर्य पुरस्कार प्राप्त करने का गौरव हासिल हुआ। श्रीनगर से नं. 18 स्क्वॉड्रन के साथ नैट वायुयान उड़ा रहे फ्लाइंग अफसर निर्मल जीत सिंह सेखों को मरणोपरांत परम वीर चक्र प्रदान किया गया। दिसंबर 1971 के अभियान की सफलता ने भारतीय वायु सेना के लिए नए इतिहास और भूगोल की रचना की, परंतु साथ ही इसे युद्ध के बाद के विश्लेषण से सबक लेने पड़े, यद्यपि इन सबकों से किसी मूलभूत परिवर्तन के बजाय परिमार्जन को राह मिली।

1965 के ऑपरेशन
1965 के ऑपरेशन
समय के साथ भारत और पाकिस्तान के बीच लगातार बढ़ते तनाव की परिणति 01 सितंबर 1965 को पाकिस्तानी बलों द्वारा छंब सेक्टर में एक बड़े हमले के रूप में हुई। हमला करने का समय और स्थान चुनने में पहल करने और हथियारों तथा सैन्यदलों दोनों ही क्षेत्रों में भारत के मुकाबले में संख्या की अधिकता के आधार पर पाकिस्तान ने भारतीय बलों के लिए जमीन पर गंभीर खतरा उत्पन्न कर दिया। इसलिए छंब-जौरियां सेक्टर में आगे बढ़ रही पाकिस्तानी बख्तरबंद सेना के विरुद्ध तत्काल हवाई हमले का आग्रह किए जाने पर उस समय एक अग्रवर्ती बेस पर संक्रियात्मक प्रशिक्षण में भाग ले रही नं. 45 स्क्वॉड्रन ने संघर्ष के पहले दिन 1745 बजे अपने वैम्पायर एफबीएमके 52 वायुयानों में पहली सॉर्टी भरी और इनके पीछे-पीछे पठानकोट से ऑपरेट कर रही नं. 3 और 31 स्क्वाड्रनों के मिस्टेयर वायुयानों ने भी हमला कर दिया। इस हमले से पाकिस्तानी बख्तरबंद सेना लड़खड़ा गई। भारतीय वायु सेना के नैट वायुयानों ने इस सेक्टर में पी ए एफ के सेबर वायुयानों को मार गिराकर अपना वर्चस्व सिद्ध कर दिया और नं. 23 और 9 स्क्वॉड्रनों ने पहली हवाई जीत हासिल की। तेजी से बढ़ते हुए 6 सितंबर को पश्चिमी पाकिस्तान और भारत के बीच लगी समूची अंतरराष्ट्रीय सारी सीमा पर पूरे स्तर पर युद्ध छिड़ गया।
आने वाले दिनों में भारतीय वायु सेना के कैनबरा वायुयानों ने सरगोधा और चकलाला स्थित प्रमुख पी ए एफ बेसों पर रात में धावा बोला और इनके साथ-साथ अकवाल, पेशावर, कोहट, चकझुमरा और रिसालवाला समेत अन्य पाकिस्तानी बेसों के विरुद्ध 200 जवाबी हवाई और इंटरडिक्शन मिशनों के लिए उड़ान भरी। हंटर वायुयानों की क्षमता का भरपूर प्रदर्शन देखने को मिला और नं. 7, 20 तथा 27 स्क्वॉड्रनों को पश्चिमी क्षेत्र में जवाबी हवाई हमलों के साथ-साथ इंटरडिक्शन और निकट सहयोग मिशनों पर लगाया गया जबकि नं. 14 स्क्वॉड्रन के हंटर वायुयानों ने पूर्व में कलाइकुंडा स्थित भारतीय वायु सेना बेस पर धावा बोलने वाले पी ए एफ के नं. 14 स्क्वॉड्रन के सेबर वायुयानों के साथ लड़ाई लड़ी। मिस्टेयर वायुयानों को मुख्यतः जमीनी आक्रमण का काम सौंपा गया जिसमें वे अत्यंत प्रभावी सिद्ध हुए और 5 मि मी की स्वॉथ के साथ ये रॉकेट बख्तरबंद वाहनों के विरुद्ध सबसे असरदार सिद्ध हुए। संभवतः सबसे शानदार संक्रियात्मक सफलता नैट वायुयानों को मिली जिनसे लैस तीन स्क्वॉड्रनों ने अधिकांश संक्रियात्मक भारतीय वायु सेना बेसों के ऊपर उड़ान भरते हुए हवाई रक्षा का आधार मुहैया कराने के साथ-साथ एस्कॉर्ट मिशनों को भी अंजाम दिया। वास्तव में इसकी सफलता खास तौर पर एफ-86 के विरुद्ध ऐसी थी कि इसने ''सेबर स्लेयर'' की उपाधि हासिल की। सितंबर का संघर्ष पहला पूर्ण-स्तरीय युद्ध था जिसमें स्वतंत्रता के बाद के समय की भारतीय वायु सेना इसमें शामिल हुई और परिणाम के तौर पर इसने कई सबक सीखे। बाद में किए गए विश्लेषणों में कुछ आवश्यकताओं का खुलासा हुआ और सबक सीखने की दिशा में विस्तार की गति थोड़ी धीमी पड़ गई। यह महसूस किया गया कि भारत-चीन युद्ध के बाद शुरू किए गए भारतीय वायु सेना के विस्तार की अत्यंत तेज गति के मद्‌देनजर गुणवत्ता की अपेक्षा सैनिकों की संख्या बल पर कुछ ज्यादा ही जोर दे दिया गया। इस क्रम में कार्मिक आउटपुट को अधिकाधिक रखने के दौरान प्रशिक्षण की अवधि में कमी करना आवश्यक हो गया और इस बात का प्रमाण था कि संक्रियात्मक कार्यकुशलता पर इसका कुछ प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता था। इस प्रवृत्ति में बदलाव लाते हुए अब एक बार फिर संख्या बल की जगह गुणवत्ता को महत्व दिया गया और इसके परिणामस्वरूप प्रशिक्षण के तरीके में व्यापक परिवर्तन हुआ।
03 सितंबर 1965 को भारतीय वायुसेना को हवा से हवा में मार गिराने में पहली बार सफलता मिली। स्क्वॉड्रन लीडर ट्रेवर कीलोर ने अपने हलके वजन के नैट लड़ाकू वायुयान में उड़ान भरते हुए छंब सेक्टर में एक पाकिस्तानी सेबर जेट एफ-86एफ वायुयान को मार गिराया। स्क्वॉड्रन लीडर ट्रेवर कीलोर के नेतृत्व में कम ऊँचाई (जमीन से मुश्किल से 100 फीट ऊपर) पर एक सामरिक विरचना में उड़ान भरते हुए चार नैट छंब सेक्टर में समाघात क्षेत्र की ओर आगे बढ़ रहे थे। जब यह विरचना अखनूर पुल पार कर रही थी, नियंत्रक रेडार ने शत्रु की हवाई गतिविधि की रिपोर्ट दी। सूचना प्राप्त होने पर नैट 90 सेकंड से भी कम समय में ही 30,000 फीट ऊपर चले गए और घुसपैठियों की मौजूदगी की छानबीन की। स्क्वॉड्रन लीडर कीलोर ने दो पाकिस्तानी सेबर जेट एफ-86एफ को ढूंढ़ निकाला और करतब करते हुए शत्रु के वायुयानों के पीछे एपनी विरचना को ले आए। मोड़ पूरा होने के बाद कीलोर लक्ष्य को तबाह करने के लिए पोजिशन लेने की बिल्कुल सही अवस्था में थे। अपने दोहरे 30 एमएम कैनन गन से 450 गज की दूरी से गोलीबारी करते हुए वे 200 गज की दूरी तक आ गए। एक ही क्षण में सेबर के दाहिने विंग को तोड़ दिया और दुश्मन का वायुयान आकाश से नीचे गिर गया। भारतीय वायुसेना ने हवा में अपनी पहली कामयाबी हासिल की और स्क्वॉड्रन लीडर कीलोर हवा से हवा में युद्ध में एक जेट को मार गिराने वाले पहले भारतीय पायलट बने।
04 सितंबर 1965 को फ्लाइट लेफ्टिनेंट वी. एस. पठानिया ने नैट वायुयान में उड़ान भरते हुए दूसरे पीएएफ सेबर जेट वायुयान को छंब सेक्टर के ऊपर मार गिराया। लगभग 100 फीट की ऊँचाई पर उड़ान भरते हुए फ्लाइट लेफ्टिनेंट पठानिया तेजी से आगे बढ़ रहे पीएएफ सेब वायुयान के पीछे फायर करने की स्थिति में आए और 500 मीटर सं कम दूरी से निशाना साधते हुए गोलीबारी शुरू करके शत्रुके सेबर पर सीधा प्रहार किया। तेज धुएं में घिरा हुआ वायुयान नीचे गिरता देखा गया। यह भारतीय वायुसेना द्वारा हवा में शत्रु के वायुयान को मार गिराने का यह दूसरा उदाहरण था।
 1962 के ऑपरेशन
1962 के ऑपरेशन
1962 में भारत और चीन के बीच एक युद्ध छिड़ गया। जहां विवादित हिमालय सीमा युद्ध का मुख्य बहाना थी, अन्य मूल विषयों ने भी इसमें एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। 1959 के तिब्बत विद्रोह के बाद जब भारत ने दलाई लामा को शरण दी, सीमा पर लगातार कई सशस्त्र झड़पें होती रहीं। इसके साथ हिमालय की सीमा से लगे 3225 कि.मी. लंबे विवादित क्षेत्र के बारे में इन दो देशों द्वारा किसी राजनीतिक सहमति पर न  पहुंच पाने से चीन को भारतीय क्षेत्र पर हमला करने का बहाना मिल गया।
अक्तूबर 1962 में तृतीय कमांडिंग अफसर स्क्वॉड्रन ई डी’सूजा की कमान में स्कॉर्पियो तेजपुर से दसॉ औरागन (तूफानी) ऑपरेट कर रहे थे। महीने के आरंभ में स्क्वॉड्रन ने अपनी तैयारी का स्तर बढ़ाया और वायुयान की सेवायोज्यता अवस्था बेहतर करने के लिए कुछ दिन अनुरक्षण के काम में लगाए। चीन के साथ आसन्न दुश्मनी को देखते हुए स्कॉर्पियो ने जब भी समय मिला अभ्यास डाइव और सामरिक सॉर्टी करते हुए अपने सामरिक कौशल की धार बनाए रखी। जब संघर्ष अवश्यंभावी दिख रहा था, स्कॉर्पियो हमेशा सशस्त्र और पलक झपकते ही आक्रमण के लिए तैयार रूप में आपात उपयोग के लिए रखे गए।
 1962  के समय में पहाड़ों के आस-पास उड़ान काफी सीमित थी क्योंकि न तो सरकार और न ही भारतीय वायुसेना पर्वतीय क्षेत्रों में किसी शत्रु से लड़ने की अपेक्षा कर रही थी। उड़ान भरने की ऊँचाई, डाइव कोण, हथियार मोचित करने की ऊँचाई, पलायन मार्ग, दोपहर के समय ऑपरेशनों में मौसम का प्रभाव, रेंज / सह्यता बनाम हथियार लोड, तलाशी / बचाव, हेलिकॉप्टर सहायता आदि से संबंधित अधिक ऊँचाई पर ऑपरेशनों के लिए कोई मानक प्रचालन प्रक्रिया (एसओपी) मौजूद नहीं थी। 

20 अक्तूबर 1962 को चीनी पीपल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के एक-दूसरे से 1000 कि.मी. दूर दो हमले किए। पश्चिमी युद्ध क्षेत्र में पीएलए ने अक्साई चीन में चिप चाप घाटी से भारतीय बलों को पीछे हटाने का प्रयास किया जबकि पूर्वी मोर्चे पर इसने नमका-चू नदी के दोनों तटों पर कब्जे का प्रयास किया। सं. रा. अमेरिका और यूनाइटेड किंगडम ने भारत की जवाबी कार्रवाई का समर्थन किया जबकि सोवियत संघ क्यूबा के मिसाइल संकट में पहले से उलझा हुआ था और इसने पहले के वर्षों मे जो सहायता मुहैया कराई थी, उस तरह क सहायता प्रदान करने के लिए इसके पास अतिरिक्त रिज़र्व नहीं थे।
20 अक्तूबर 1962 की शाम तक नमका-चू नदी की लड़ा ईकी खबर सामने आ गई। स्क्वॉड्रन ने अधिक ऊँचाई पर ऑपरेशनों की दिक्कतों के बावजूद सेना की सहायता में सीएसएफओ मिशनों को अंजाम देने के लिए पर्याप्त तौर पर खुद को तैयार कर लिया। स्कॉर्पियो युद्ध के लिए तैयार थे किंतु वे केवल कुछेक टोही मिशन करने के लिए बुलाए गए। इस संघर्ष में हवाई शक्ति का इसकी पूरी क्षमता के साथ उपयोग नहीं किया गया और यह केवल सूचना जुटाने के कामों तक ही सीमित थी। टोही मिशन भी वायुसेना द्वारा ऐसे मिशनों को रोके जाने का आदेश दिए जाते ही दुर्लभ हो गए। यहां इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि सीमित संचार के उन दिनों में ऐसे आदेशों को फील्ड यूनिटों तक पहुँचने में अच्छा-खासा समय लगता था। लड़ाकू वायुयानों को युद्ध से हटा लिए जाने के बावजूद भी भारतीय वायुसेना का परिवहन बेड़ा और हेलिकॉप्टर युद्ध में शामिल रहे। वे चौबीसों घण्टे रसद गिराने और हताहतों को निकालने के मिशनों में लगे रहे। उस वक्त हेलिकॉप्टर पायलटों की घोर कमी की वजह से द्वितीय पायलट की ड्यूटी करन के लिए स्क्वॉड्रन के छह पायलटों को विभिन्न हेलिकॉप्टर यूनिटों पर संलग्न किया गया। इस प्रकार यह यूनिट भारतीय वायुसेना की भूमिका सीमित रहने के बाद भी युद्ध में शामिल रही। चीन द्वारा 20 नवंबर 1962 को युद्ध विराम की घोषणा की गई और विवादित क्षेत्रों से धीरे-धीरे लगातार सैन्य बलों को हटाने का काम किया गया। स्कॉर्पियो ने 23 नवंबर 1962 को अपने मूल स्थान पर वापसी की यात्रा शुरू की।
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